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किम॒ङ्ग त्वा॒ ब्रह्म॑णः सोम गो॒पां किम॒ङ्ग त्वा॑हुरभिशस्ति॒पां नः॑। किम॒ङ्ग नः॑ पश्यसि नि॒द्यमा॑नान्ब्रह्म॒द्विषे॒ तपु॑षिं हे॒तिम॑स्य ॥३॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

kim aṅga tvā brahmaṇaḥ soma gopāṁ kim aṅga tvāhur abhiśastipāṁ naḥ | kim aṅga naḥ paśyasi nidyamānān brahmadviṣe tapuṣiṁ hetim asya ||

पद पाठ

किम्। अ॒ङ्ग। त्वा॒। ब्रह्म॑णः। सो॒म॒। गो॒पाम्। किम्। अ॒ङ्ग। त्वा॒। आ॒हुः॒। अ॒भि॒श॒स्ति॒ऽपाम्। नः॒। किम्। अ॒ङ्ग। नः॒। प॒श्य॒सि॒। नि॒द्यमा॑नान्। ब्र॒ह्म॒ऽद्विषे॑। तपु॑षिम्। हे॒तिम्। अ॒स्य॒ ॥३॥

ऋग्वेद » मण्डल:6» सूक्त:52» मन्त्र:3 | अष्टक:4» अध्याय:8» वर्ग:14» मन्त्र:3 | मण्डल:6» अनुवाक:5» मन्त्र:3


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर मनुष्य कैसे परीक्षक हों, इस विषय को कहते हैं ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे (अङ्ग) मित्र (सोम) ऐश्वर्य की इच्छा करनेवाले जन ! (किम्) क्या (त्वा) तुझे (ब्रह्मणः) धन का (गोपाम्) रक्षा करनेवाला (आहुः) कहें। हे (अङ्ग) मित्र ! (किम्) क्या (त्वा) तुझे (अभिशस्तिपाम्) सामने प्रशंसा रखनेवाले कहते हैं। हे (अङ्ग) सखे मित्र ! तू (नः) हम लोगों को (किम्) क्या (पश्यसि) देखता है। हे मित्र तू (निद्यमानान्) निन्दा प्राप्त (नः) लोगों को क्या देखता है (ब्रह्मद्विषे) वेदविद्या द्वेषी जनके लिये (तपुषिम्) अति तपे हुए (हेतिम्) वज्र को क्या नहीं देखता (अस्य) इस पर वज्र प्रहार कर ॥३॥
भावार्थभाषाः - हे मनुष्यो ! तुम इस धन के रक्षक क्यों नहीं होते हो, स्तुति (प्रशंसा) करनेवाले हम लोगों को निन्दा करनेवाले भ्रम से मत देखो, निश्चय धनपति तथा वेदविद्या से द्वेष करते हैं, उनका सङ्ग युद्ध विना मत करो ॥३॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनर्मनुष्याः कीदृक् परीक्षकाः स्युरित्याह ॥

अन्वय:

हे अङ्ग सोम ! किं त्वा ब्रह्मणो गोपामाहुः। हे अङ्ग ! किं त्वाऽभिशस्तिपामाहुः। हे अङ्ग ! त्वं नः किं पश्यसि। हे अङ्ग ! त्वं निद्यमानान्नः किं पश्यसि। ब्रह्मद्विषे तपुषिं हेतिं किं न पश्यसि। अस्योपरि वज्रप्रहारं कुर्य्याः ॥३॥

पदार्थान्वयभाषाः - (किम्) (अङ्ग) मित्र (त्वा) त्वाम् (ब्रह्मणः) धनस्य (सोम) ऐश्वर्यमिच्छो (गोपाम्) रक्षकम् (किम्) (अङ्ग) सखे (त्वा) त्वाम् (आहुः) कथयन्तु (अभिशस्तिपाम्) अभिमुखप्रशंसारक्षितारम् (नः) अस्मान् (किम्) (अङ्ग) (नः) अस्मान् (पश्यसि) (निद्यमानान्) प्राप्तनिन्दान् (ब्रह्मद्विषे) वेदविद्याद्वेष्ट्रे (तपुषिम्) प्रतप्तम् (हेतिम्) वज्रम् (अस्य) ॥३॥
भावार्थभाषाः - हे मनुष्या ! यूयमस्य धनस्य गोप्तारः किमर्थं न भवथ स्तावकानस्मान्निन्दकान् भ्रमेण मा पश्यत, ये हि धनेश्वरवेदविद्यां द्विषन्ति तेषां सङ्गं युद्धमन्तरा मा कुरुत ॥३॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - हे माणसांनो! तुम्ही धनरक्षक का होत नाही? स्तुती करणाऱ्या आमच्याकडे निंदक या दृष्टीने पाहू नका. जे धनवान व वेद विद्येचा द्वेष करतात त्यांचा संग युद्धाशिवाय करू नका. ॥ ३ ॥